नशीला संगीत

संगीत जिसकी लोग पूजा करते है, जिसे ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग माना जाता था वो भी आज इंसान के कर्मों से दूषित हो चुका है। प्राचीन काल में तो संगीत का उपयोग ईश्वर को प्रसन्न करने तथा मन की शांति के लिए होता था। लेकिन आज के समय का संगीत मन की शांति तो नहीं वरन् मन के भटकाव में जरूर सहायक हो रहा है।

आज का युग मोह- माया का युग है। संगीत का ये हाल माया के मोह ने ही तो किया है। जब से संगीत की बिक्री का चलन शुरू हुआ है तब से निरंतर इसका ह्रास ही हुआ है। आज तो हर कोई संगीत का निर्माण केवल इसीलिए करता है ताकि उसे वो ऊँचे दामों पर बेच सके। अब चाहे उसे बेचने के लिए उसके अस्तित्व पर ही प्रहार क्यों न हो जाए।

आज के युग में संगीत के माध्यम से ईश्वर की आराधना का भी नया ट्रेंड शुरू हुआ है। पहले तो लोग खुद भजन गाकर ईश्वर को प्रसन्न करने की कोशिश किया करते थे आज तो साउंड सिस्टम में भक्ति गाने बजा दिए बस हो गयी आरती और हो गया भजन। यहाँ तक भी बात कुछ हज़म हो सकती है लेकिन अब तो भक्ति गानों को भी अश्लील हिंदी गानों की धुनों पर बनाया जा रहा है जैसे- बीड़ी जलइले इत्यादि पर।

कुछ वर्षो में संगीत के एक नए युग का भी आरम्भ हुआ है वो है नशे में डूबा हुआ संगीत। आज तो गीतकार और निर्देशक किसी भी गाने को हिट बनाने के चक्कर में उसमें शराब, दारु, वोडका इत्यादि नामों का प्रयोग भी खूब धड़ल्ले से कर रहे है। इतना ही नहीं वो अपने गीतों के माध्यम से युवाओँ को इनका प्रयोग करने के लिए भी उकसा रहे है। अब चाहे वो गीत चार बोतल वोडका हो या जॉनी जॉनी हाँ जी या फिर D से दारु पीते जाओ इत्यादि। अब तो हद ही हो गयी है जब माँ की लोरी में आने वाली दूध की कटोरी को भी दारु से भर कर उसे भी जहरीला बना दिया है।

अगर ऐसा ही चलता रहा तो पता नहीं आगे आने वाले समय में संगीत का क्या हश्र होने वाला है। मुझे अब तक समझ नहीं आया कि फ़िल्मों की ही तरह संगीत के लिए कोई सेंसर बोर्ड अब तक क्यूँ नहीं बनाया गया। अगर ऐसी कोई संस्था होती तो संगीत का इतना पतन शायद ही होता। लेकिन 'जब जागो तभी सवेरा' की तर्ज़ पर यदि आज भी कोई ऐसी संस्था बना दी जाए जो ऐसे गीतों पर नियंत्रण रख सके तो शायद संगीत की कुछ बाकी बची गरिमा को अभी भी बचाया जा सकता है।

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